संपादकीय

प्रतिमाएं विखंडन करने से बिगड़ रहा है सामाजिक सौहार्द

अभी हाल ही में राजस्थान के उदयपुर ज़िले में परशुराम जी की प्रतिमा तोड़ने का मामला सामने आया है। इसी तरह दिल्ली के जेएनयू विश्वविद्यालय में छत्रपति शिवाजी महाराज की तस्वीर से छेड़खानी की खबर भी आई है। ये घटनाएं पहली बार नहीं है। राजस्थान सहित देश भर में वैचारिक मतभिन्नता को आधार बनाकर प्रतिमा विखंडन या विरोध की ऐसी कई घटनाएं अब हमारे सामने आती रहती हैं, जहाँ भिन्न विचारों के समर्थक कभी बाबा साहब अंबेडकर, वीर सावरकर, महात्मा गांधी की प्रतिमाओं को नष्ट करते हैं; उन पर कालिख फेंक देते हैं या उपद्रव कर देते हैं।

ऐसी घटनाओं से समाज का ताना-बाना बिगड़ता है। हम मूर्तियों को तोड़कर इतिहास को नहीं बदल सकते हैं, किसी की मान्यताओं को नहीं बदल सकते हैं। अलग-अलग हित समूह अपनी आस्था के अनुसार इन प्रतिमाओं को स्थापित करते हैं। उनका तार्किक विरोध किया जाए तो समझ में आता है, लेकिन हिंसक रूप से मूर्ति तोड़ना किसी तरह जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है।

अनेक प्रकार की विविधताएं लिए भारतीय समाज का आदर्श विविधता में एकता है। भारतीय समाज बोली-भाषा से लेकर संस्कृति, धर्म, जाति, वर्ग और विचारों में बँटा है। इन सबके बावजूद भी भारतीयता की भावना सारे देश को एक रखती है। 1950 के दशक में और उसके आसपास भारत सहित दुनिया के कई देश स्वतंत्र हुए थे। उन दिनों स्वाधीन हुए राष्ट्रों में अधिकतर में आज लोकतंत्र की स्थायी व्यवस्था नहीं है। पाकिस्तान, मिस्त्र, चीन सहित अनेक राष्ट्रों में सैनिक शासन, राजसत्ता का बोलबाला आज तक है। इन देशों में अलगाववाद की भावना गहराई से पनपी है। वर्ष 1971 में पाकिस्तान से अलग हुआ बांग्लादेश इसका बड़ा उदाहरण है। इन सबसे तुलना करें तो स्वाधीन भारत में ऐसे स्तर पर अलगाववादी ताकतें सक्रिय नहीं हो पाई। स्वाधीनता संघर्ष के समय का राष्ट्रवाद आज भी देश के जनमानस को वैचारिक रूप से एक करता है।

हालांकि वैचारिक विविधता हमारे देश में भी बड़े स्तर पर देखी जाती है। धुर दक्षिणपंथी दलों के साथ धुर वामपंथी दलों का प्रभाव हमारी राजनीति में बड़े पैमाने पर देखा जा सकता है। लेकिन जब कोई वैचारिक द्वन्द्व तनातनी या व्यर्थ के हिंसक कृत्य में परिवर्तित हो जाए, तो उसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह रीत भारत के समाज को तो तोड़ती ही हैं, इसी के साथ हमारे लोकतंत्र को भी दागदार बनाती है।

भारत के महान संविधान की प्रस्तावना न्याय, समानता और बंधुत्व जैसे आदर्शों पर बल देती है। नागरिकों का यह मैलिक कर्तव्य है कि वे भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा व प्रदेश या वर्ग आधारित सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो। ऐसे में यह हर एक नागरिक का दायित्व बनाता है कि आपसी विद्वेष और वैमनस्य बढ़ाने वाली हर तरह की मानसिकता का त्याग कर सामूहिक उन्नति के साथ राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए कार्य करें।

लेखक- विश्वजीत सिंह चंपावत (बाली, पाली)

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